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स॒स॒र्प॒रीरम॑तिं॒ बाध॑माना बृ॒हन्मि॑माय ज॒मद॑ग्निदत्ता। आ सूर्य॑स्य दुहि॒ता त॑तान॒ श्रवो॑ दे॒वेष्व॒मृत॑मजु॒र्यम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sasarparīr amatim bādhamānā bṛhan mimāya jamadagnidattā | ā sūryasya duhitā tatāna śravo deveṣv amṛtam ajuryam ||

पद पाठ

स॒स॒र्प॒रीः। अम॑तिम्। बाध॑माना। बृ॒हत्। मि॒मा॒य॒। ज॒मद॑ग्निऽदत्ता। आ। सूर्य॑स्य। दु॒हि॒ता। त॒ता॒न॒। श्रवः॑। दे॒वेषु॑। अ॒मृत॑म्। अ॒जु॒र्यम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» मन्त्र:15 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (जमदग्निदत्ता) नेत्र से प्रत्यक्ष दी गई (ससर्परीः) अत्यन्त चलनेवाली वाणी (अजुर्य्यम्) हानि से रहित (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (दुहिता) कन्या के सदृश वर्त्तमान अन्धकार को नाश करते हुए प्रातःकाल के सदृश (बृहत्) बड़े (अमतिम्) रूप को (मिमाय) नापती है और (देवेषु) विद्वानों में हानिरहित (अमृतम्) अमृत स्वरूप (श्रवः) सुनने का (आ, ततान) विस्तार करती है, उस वाणी की सब प्रकार वृद्धि करो ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो ब्रह्मचर्य धर्म का अनुष्ठान और पुरुषार्थों से श्रेष्ठ पुरुषों के समीप से विद्या और उत्तम शिक्षा को मनुष्य ग्रहण करें तो उनको कुछ भी सुख अप्राप्त न होवे ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या या जमदग्निदत्ता ससर्परीर्वागजुर्य्यं सूर्य्यस्य दुहिता तमो बाधमानोषा इव बृहदमतिं मिमाय देवेष्वजुर्य्यममृतं श्रव आ ततान तां वाचं सर्वथोन्नयत ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ससर्परीः) भृशं सर्पणशीला (अमतिम्) रूपम् (बाधमाना) निवारयन्ती (बृहत्) (मिमाय) मिमीते (जमदग्निदत्ता) चक्षुषा प्रत्यक्षेण दत्ता। चक्षुर्वै जमदग्निर्ऋषिः। शतपथब्राह्मणे। (आ) (सूर्य्यस्य) (दुहिता) दुहितेव वर्त्तमानोषा (ततान) तनुते विस्तृणोति (श्रवः) श्रवणम् (देवेषु) विद्वत्सु (अमृतम्) अमृतात्मकम् (अजुर्य्यम्) हानिरहितम् ॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि ब्रह्मचर्य्यधर्मानुष्ठानपुरुषार्थैराप्तानां सकाशाद्विद्यासुशिक्षे मनुष्या गृह्णीयुस्तर्हि तेषां किमपि सुखमप्राप्तं न स्यात् ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ब्रह्मचर्याचे अनुष्ठान करून पुरुषार्थाने श्रेष्ठ पुरुषांकडून विद्या व उत्तम शिक्षण प्राप्त करतात तेव्हा त्यांना नेहमी सुख मिळते. ॥ १५ ॥